तादाद कभी भी हक़ का मेयार नहीं होती; न ही यह समझदारी की दलील होती है। अगर हज़ार लोग एक ही जैसे माहौल में रह कर एक बात पर जमा हैं, तो उनकी गिनती एक ही रहेगी। गिनती तब बढ़ेगी जब एक इंसान एक मुख़्तलिफ़ माहौल में रह कर उसी बात पर जमा हो। माहौल का फ़र्क़ जितना वाज़ेह होगा, गिनती उसी फ़ैक्टर से कम या ज़्यादा बढ़ेगी। मगर फिर भी तादाद हक़ का मेयार नहीं होगी।
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पता नहीं मेरा यह निष्कर्ष तथ्यात्मक रूप से सही है या नहीं। इस पर पुनर्विचार किया जा सकता है।
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